Pm Modi 3 Farm Laws Repealed | कृषि कानून Details | Farmers Victory For Farm Law Widhrawal
कृषि कानून के वह कौन सी बात थी कि मोदी सरकार की तपस्या फेल हो गई?
अब जाओ यह कानून वापस लेने का फैसला हो ही गया है तो अब इन कानूनों किए उन फेसबुक पर भी नजर डाली जाए जिनको लेकर बवाल उठ रहा था.
1.मोदी सरकार की तपस्या फेल होने की कहानी
2.किसानों के विरोध की असल वजह जानिए
3.वह तर्क जिन्होंने मोदी सरकार को जगा दिया
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मोदी सरकार ने शुक्रवार को बड़ा फैसला लेते हुए तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर दिया. जिन कानूनों को लेकर किसानों के बीच ही जंग छिड़ी हुई थी, एक साल से दिल्ली के बॉर्डर पर किसान बैठे थे, सड़कें बंद थीं. अब उस विवादित चैप्टर को ही खत्म करने का फैसला ले लिया गया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुबह 9:00 बजे देश के नाम संबोधन किया और आते ही अपनी सरकार का सबसे बड़ा फैसला सुना दिया. किसानों का जो वर्ग इन कानूनों का विरोध कर रहा था, वह झूम उठा. विपक्ष भी अपनी जीत बताने लगा, तो वहीं सत्ताधारी बीजेपी इसे पीएम का 'बड़प्पन' बताने लगी.
मोदी सरकार की तपस्या कैसे हुई फेल
अब आरोप-प्रत्यारोप का दौर अपनी जगह, राजनीति भी होती रहेगी लेकिन सवाल यह है कि आखिर क्यों मोदी सरकार की तपस्या कामयाब नहीं हुई. पीएम की मानें तो वे और उनकी सरकार किसानों को ठीक तरीके से समझा नहीं पाए. लेकिन असल में प्रदर्शन कर रहे किसानों के पास कई कारण थे जिस वजह से भी इन कृषि कानूनों का प्रज्वल रुप से विरोध कर रहे थे. अब जब यह कानून वापस लेने का फैसला हो ही गया है, तो अब इन कानूनों के उन पहलुओं पर भी नजर डाली जाए जिन को लेकर बवाल हो रहा था.
पिछले साल 16 सितंबर को लोकसभा से तीनों कृषि विधायक पास कर दिए गए थे. इसके बाद 20 सितंबर को राज्यसभा ने भी उन्हें पारित कर दिया. उसके बाद से ही देश में कई जगह पर छिटपुट प्रदर्शन होने लगे थे, पंजाब में तो ज्यादा ही गरमा गरमी देखने को मिली. तब तक किसान सड़क पर नहीं आए थे, लेकिन विरोध के सुर सुनाई देने लगे थे. जिन तीन कानूनों को सरकार लेकर आई थी, वो कुछ इस प्रकार थे–
कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधायक, 2020
अब इस कानून में सरकार ने सिर्फ इतना कहा था कि किसानों को अपना अनाज बेचने के लिए सिर्फ मीडिया पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है वह मंडी से बाहर जाकर भी अपनी फसल को ऊंचे दामों में बेच सकते थे. सरकार तर्क दे रही थी ऐसा होने से किसानों के लिए ज्यादा विकल्प खुल जाएंगे और उनकी मंडियों पर निर्भरता भी कम होगी.
सरकार ने इस बात की भी उम्मीद जताई थी कि ऐसा होने से निजी खरीदारों द्वारा किसानों को और ज्यादा पैसा मिलने लगेगा. अब सरकार ने जरूर इस कानून को इस नजरिए से किसानों के सामने प्रोजेक्ट किया, लेकिन उनकी तपस्या प्रदर्शन कर रहे किसानों ने फेल कर दी.
इस कानून को लेकर किसानों का साफ कहना था कि ऐसा होने पर पीएमसी मीडिया समाप्त कर दी जाएगी. म्यूजिक खरीदारों के पास ज्यादा ताकत होगी और वह अपनी इच्छा अनुसार अपने दम पर फसल खरीद सकेंगे. सरकार ने हर मौके पर किसानों के इस दावे को नकारा है, लेकिन यह विवाद सुलझने के बजाय उलझता गया. किसान यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि एक बाजार की परिकल्पना उन्हें फायदा देगी. उनकी नजरों में इस कानून के लागू होते ही बिना किसी पंजीकरण के भीड़ बड़े प्राइवेट प्ले हर मैदान में कूद पड़ेंगे और किसानों की फसल को बिना किसी नियम के खरीद बेच सकेंगे. कानून के इसी पहलू ने किसानों को सोचने पर मजबूर कर दिया कि वे निजी खरीदारों की कठपुतली बन जाएंगे और उनकी फसल को उचित दाम तो दूर, उनका उत्पीड़न शुरू हो जाएगा.
किसान (शक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक
अब बात करते हैं इस दूसरे कानून की जिसका सारा केंद्र कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पर रहा. सबसे आसान शब्दों में समझना चाहे तो यह कानून चाहता है कि आप की जमीन को एक निश्चित राशि पर कुछ समय के लिए किसी ठेकेदार या कहा लीजिए पूंजीपति को दे दिया जाएगा और फिर वह अपने हिसाब से फसल का उत्पादन भी करेगा और बाद में उसे बेचेगा भी. इस कानून में बताया गया है कि किसानों और उस ठेकेदार के बीच एक समझौता किया जा सकेगा जिससे भविष्य में एकता दाम में फसल को बेचा जा सके. सरकार ने तर्क दिया था कि ऐसा होते ही किसानों को अपनी फसल का ज्यादा मूल्य मिलेगा. कानून में इस बात का भी जिक्र था कि जिन किसानों की जमीन 5 हेक्टेयर से कम है, उन्हें कॉन्ट्रैक्ट का फायदा दिया जाएगा.
लेकिन किसानों ने सरकार की इस कानून को भी सिरे से खारिज कर दिया. ऐसा एक भी पहलू नहीं रहा जहां पर किसान और सरकार की सोच मैच कर रही हो अगर सरकार को कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में खेती का भविष्य नजर आ रहा था, ना तो किसान इसे सिर्फ और सिर्फ अपने उत्पीड़न के तौर पर देख रहे थे. उनका तर्क था कि ऐसे समझो तो मैं हमेशा जमीन खरीदने वाले ठेकेदार या पूंजीपति की ज्यादा बात मानी जाएगी. समझौते के दौरान भी किसानों को ज्यादा कुछ कहने का यह बातचीत का मौका नहीं मिलेगा. किसानों का यह भी कहना था कि बड़ी कंपनियां कांटेक्ट फार्मिंग के जरिए उन किसानों को सुनेगी जिनसे उन्हें फायदा हो सके, ऐसे में छोटे किसान पीछे रह जाएंगे और उन्हें इसका नुकसान उठाना पड़ेगा.
वहीं किसानों ने इस बात पर भी जोर दिया है कि अगर इस समझौते के बीच कभी विवाद की स्थिति आती है तो ऐसे में जीत हमेशा पूंजीपति की हो जाएगी क्योंकि वह महंगे से महंगा वकील ला सकता है, लेकिन किसान बेसहारा रह जाएंगे. ऐसे में सरकार ने चाहे इसे एक दूर दृष्टि वाला कानून बताया, लेकिन किसानों ने इन दवों मैं विश्वास नहीं जताया और पीएम की तपस्या फेल गई.
आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक
अब यह तीसरा कानून भी सरकार यही सोच कर लाई थी की खेती में क्रांतिकारी बदलाव आएंगे सोच यह थी के आलू, प्याज, खाद्य तेल, लहसन और कुछ अन्य कृषि उत्पादों को आवश्यक वस्तु की कैटेगरी से ही बाहर कर दिया जाएगा. इसका मतलब यह था कि आप अपने मन मुताबिक इन कृषि उत्पादों का स्टॉक कर पाएंगे. सिर्फ युद्ध और आपातकाल जैसी स्थिति में सरकार हस्तक्षेप करेगी. लेकिन किसानों को सरकार का यह तर्क भी रास नहीं आया. ये कहकर इसका विरोध कर दिया गया कि ऐसा कानून आते ही असाधारण परिस्थितियों में वस्तुओं के दाम में जबरदस्त बढ़ोतरी हो जाएगी. किसानों का यह भी कहना है कि इस कानून की वजह से बड़ी कंपनियां आने वाले समय में उन्हें अपने मन मुताबिक रेट पर बेचने पर मजबूर कर सकती हैं. एक किसान वर्ग ऐसा भी है जो मानता है कि इस कानून के आने से जमाखोरी बढ़ जाएगी और सरकार को भी इस बात का पता नहीं रहेगा कि कहां कितना अनाज स्टॉक में पड़ा हुआ है. अब इस पूरे विवाद का सारांश यही है कि किसान ये मान बैठे हैं थे कि इन तीनों कृषि कानूनों की वजह से सिर्फ खेती का निजीकरण किया जा रहा है. उन्हें इस बात का भी खतरा लगने लगा था कि सरकार मंडियों को समाप्त कर देगी. डर तो यह भी आ गया था कि उन्हें अपनी फसल पर एमएसपी नहीं मिल पाएगी.
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